Monday, September 17, 2018

वो गुवाहाटी हाईकोर्ट में जज ब में वो सुप्रीम कोर्ट जज

ब देखना यह है कि प्रशांत किशोर अपने बढ़ते कद और पुराने नेताओं की घटती अहमियत से भड़कती चिंगारियों को शोला बनने से रोकने के लिये कौन-सी रणनीति अपनाते हैं.
हालांकि, जदयू के नेता सुभाष प्रसाद सिंह का कहना है, "यह पार्टी का नीतिगत निर्णय है. कार्यकर्ताओं के मनोबल को ऊँचा करने और हर मोर्चे पर नेता तैयार करने के ख़्याल से उन्हें पार्टी में शामिल किया गया है."
वहीं, राजद के प्रवक्ता चितरंजन गगन का मानना है कि प्रशांत किशोर के जदयू में जाने से चुनाव में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा.
वह दावा करते हैं कि वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में मिली जीत में भी उनकी भूमिका न के बराबर थी. वह कहते हैं, "वोटरों पर लालू प्रसाद का जादुई असर हुआ था. इस बार तेजस्वी प्रसाद यादव उन्हें नाकाम करेंगे."
उधर भाजपा मीडिया सेल के प्रभारी राकेश कुमार सिंह ने इस घटना को जदयू का अंदरूनी मामला बताया.
प्रशांत किशोर का पैंट-शर्ट छोड़कर खादी का कुर्ता-पायजामा पहनना शायद सफलता के कुछ और रंग दिखाने वाला हो सकता है.
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जस्टिस रंजन गोगोई को देश का अगला मुख्य न्यायधीश नियुक्त कर दिया है. वो 3 अक्तूबर से अपना कार्यभार संभालेंगे.
कुछ समय पहले चार जजों ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर न्यायपालिका के भीतर फैली अव्यवस्था की बात की थी. इनमें जस्टिस रंजन गोगोई भी शामिल थे.
इन जजों का आरोप था कि संवेदनशील मामलों को चुनिंदा जजों के पास भेजा जा रहा है और ये लोकतंत्र के लिए एक बड़ा ख़तरा है.
और अब जस्टिस रंजन गोगोई की नियुक्ति के बाद उनसे कई उम्मीदें बंध गई हैं. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनके सामने कई चुनौतियां भी हैं.
ये बात पहले ही पता थी कि इस साल अक्तूबर में मौजूदा मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा रिटायर होने वाले हैं. लेकिन आशंकाएं जताई जा रही थी कि क्या सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश रंजन गोगोई को मुख्य न्यायाधीश बनाया जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों में जस्टिस गोगोई को सबसे मुखर जज माना जाता है और उनके बारे में कहा जाता है कि वो चुप बैठने वालों में से नहीं है. ऐसे में उनकी नियुक्ति को बेहद अहम माना जा रहा है.
वरिष्ठ पत्रकार रमेश मेनन कहते हैं, "ये नियुक्ति बेहद अहम है क्योंकि जब ये प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई थी तब बहुत लोगों को लगता था कि वो कभी मुख्य न्यायाधीश नहीं बनेंगे. उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका जिस तरह काम कर रही है वो ठीक नहीं है और गणतंत्र ख़तरे में है."
मेनन कहते हैं, "हाल में देश में व्यवस्था बिगड़ी है, जाति और धर्म को लेकर हिंसा हुई है, मॉब लिंचिंग हुई है ऐसे में कई लोगों को लगता है कि मुख्य न्यायधीश वो व्यक्ति होना चाहिए जो स्पष्ट बोलता हो और ईमानदार हो. ऐसे में जस्टिस रंजंन गोगोई की नियुक्ति का फ़ैसला अच्छी बात है."
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कहते हैं आमतौर पर सर्वोच्च जज को ही मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता है और अब तक भारत में केवल दो बार ही ऐसे मौक़े आए हैं जब ऐसा नहीं हुआ है.
प्रशांत भूषण कहते हैं, "इस मामले में शंका इसलिए पैदा हुई थी क्योंकि एक तो उन्होंने मुख्य न्यायाधीश का विरोध किया था. दूसरा ये कि ये सरकार जिस तरह से न्यायपालिका में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रही थी उससे ऐसा लग रहा था कि ये सरकार उनकी जगह किसी और को मुख्य न्यायाधीश बना सकती है लेकिन ऐसा नहीं किया. ये बहुत अच्छा हुआ क्योंकि न्यायपालिका को और सरकार को भी नुकसान होता."
जस्टिस रंजन गोगई को उनके एक बयान के लिए भी जाना जाता है जो उन्होंने दिल्ली में आयोजित तीसरे रामनाथ गोयनका स्मृति व्याख्यान के दौरान दिया था.
उन्होंने न्यायपालिका को उम्मीद का आख़िरी गढ़ बताया था और कहा था कि न्यायपालिका को पवित्र, स्वतंत्र और क्रांतिकारी होना चाहिए. उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा था कि 'हो-हल्ला मचाने वाले जज न्यायपालिका की पहली रक्षा पंक्ति थे.'
ऐसे में उनसे उम्मीदें अनेक हैं और कहा जाए तो उनके सामने कई चुनौतियां भी हैं.
प्रशांत भूषण कहते हैं, "जिस तरह से पूरे देश के लोगों के मौलिक अधिकारों के ऊपर फासीवादी हमले किए जा रहे हैं, अल्पसंख्यकों को लिंच किया जा रहा है, जो सरकार से सहमत नहीं हैं उन्हें चुप कराया जा रहा है, जिस तरह से मीडिया को अपने कब्ज़े में किया जा रहा है. ये सभी लोकतंत्र के सामने बड़ी चुनौतियां हैं और न्यायपालिका को बड़ी भूमिका निभानी पड़ेगी."मेश मेनन कहते हैं कि जस्टिस गोगोई के सामने अब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का मामला आएगा.
वो कहते हैं, "एनआरसी का मुद्दा उनके सामने आएगा और वो अच्छा काम करेंगे, मुझे लगता है कि एक साल के भीतर ही इस पर कुछ ना कुछ फ़ैसला आएगा. जो कड़े कदम उठाएंगे."
जस्टिस रंजन गोगोई पूर्वोत्तर राज्यों से मुख्य न्यायाधीश बनने वाले देश के पहले व्यक्ति होंगे. उन्होंने 1978 में एक वकील के तौर पर गुवाहाटी हाईकोर्ट में काम करना शुरू किया था.
बाद में साल 2001 में वो गुवाहाटी हाईकोर्ट में जज बने. 2012 में वो सुप्रीम कोर्ट जज नियुक्त किए गए थे.
जस्टिस गोगोई 17 नवंबर 2019 में रिटायर होंगे और उनका कार्यकाल 1 साल और 44 दिनों का रहेगा.

Wednesday, September 12, 2018

तेल पर क्या वाक़ई इस क़दर लाचार है मोदी सरकार

तेल की क़ीमत बढ़ने का सिलसिला थम नहीं रहा है और केंद्र की मोदी सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं.
मंगलवार को महाराष्ट्र के परभणी शहर में तेल की क़ीमत 90.02 रुपए प्रति लीटर पहुंच गई. मुंबई में पेट्रोल 88.26 रुपए प्रति लीटर है और दिल्ली में 80.87 रुपए. दिल्ली में डीजल 72.97 रुपए प्रति लीटर है और मुंबई में 77.47 रुपए.
सोमवार को विपक्ष ने तेल की बढ़ती क़ीमतों के ख़िलाफ़ भारत बंद का आयोजन किया था. देश भर में बंद का असर भी दिखा. बंद के दौरान कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी भी दिल्ली में सड़क पर उतरे. राहुल ने तेल की बढ़ती क़ीमतों पर मोदी सरकार को जमकर निशाने पर लिया.
राहुल ने कहा, ''मोदी पर 2014 में लोगों ने काफ़ी भरोसा किया था पर अब चीज़ें साफ़ हो गई हैं. पूरे देश में मोदी घूमते थे और पेट्रोल डीज़ल की महंगाई की बात करते थे. आज क़ीमतें आसामन छू रही हैं तो मोदी चुप हैं.''
कांग्रेस के जवाब में केंद्र में बीजेपी सरकार के मंत्री रविशंकर प्रसाद ने प्रेस कॉन्फ़्रेस की और कहा कि तेल की क़ीमत अंतरराष्ट्रीय कारणों से बढ़ रही है और सरकार इस पर कुछ नहीं कर सकती है.
क्या सरकार वाक़ई इतनी लाचार है कि वो कुछ नहीं कर सकती है? क्या मसला केवल अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की बढ़ती क़ीमत है?
अगर पेट्रोल की क़ीमत 90 रुपए प्रति लीटर है तो इसमें आधा सरकार की तरफ़ से लगाए जाने वाले टैक्स हैं. इसमें केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क लगाती है तो राज्य सरकारें वैट लगाती हैं.
तेल इंडस्ट्री की अर्थव्यवस्था की अच्छी समझ रखने वाले और वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ''ये बिल्कुल सच है कि हर साल भारत में कच्चे तेल की जितनी खपत है उसका 80 फ़ीसदी से ज़्यादा हम आयात करते हैं. ये भी सच है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत लगातार बढ़ रही है. इसके साथ ही भारतीय मुद्रा रुपया अमरीकी मुद्रा डॉलर की तुलना में लगातार कमज़ोर हो रहा है. मतलब हम तेल के आयात पर जो पैसे ख़र्च करते हैं वो ज़्यादा करने पड़ रहे हैं. ज़ाहिर है इसका असर देश की घरेलू अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है.''
ठाकुरता कहते हैं, ''पर ये एक सच्चाई है. दूसरी सच्चाई यह है कि मोदी सरकार ने तेल की क़ीमतें तब भी कम नहीं कीं जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमत 30 डॉलर प्रति बैरल थी. भारत की सारी सरकारें तेल बेचकर राजस्व कमाती रही हैं. मतलब राजस्व का बड़ा हिस्सा सरकार टैक्स लगाकर जुटाती रही है. तेल पर केंद्र सरकार 30 फ़ीसदी से 40 फ़ीसदी उत्पादन शुल्क लगाती है. तेल से राजस्व इसलिए भी ज़्यादा आता है क्योंकि अब भी तेल सरकारी कंपनियां ही बेच रही हैं. अगर केंद्र सरकार उत्पादन शुल्क में प्रति लीटर दो रुपए की कटौती कर देती है तो सरकार के राजस्व कलेक्शन में 28 से 30 हज़ार करोड़ रुपए की कमी आएगी.''
ठाकुरता कहते हैं, ''जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 115 डॉलर प्रति बैरल थी. आठ महीने बाद जनवरी 2015 में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत एकदम से गिरकर 25 डॉलर प्रति बैरल हो गई. इसके बाद तेल की क़ीमत धीरे-धीरे बढ़ी और आज 72 से 75 डॉलर प्रति बैरल के आसपास हो गई है.''
वो कहते हैं, ''सवाल यह उठ रहा है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमत कम थी तब भारतीयों को इसका फ़ायदा क्यों नहीं दिया गया? इसका पूरा फ़ायदा भारत सरकार ने अपनी झोली भरने में उठाया. केंद्र की मोदी सरकार ने इन तीन-साढ़े तीन सालों में अपने राजस्व में 10 लाख करोड़ जुटाया. इसका फ़ायदा जो उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए था वो नहीं मिला. केंद्र सरकार राज्यों से कह रही है टैक्स कम करे, लेकिन ख़ुद नहीं कर रही.''
2011-12 में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 112 डॉलर प्रति बैरल थी और तब तेल क़ीमत आज की तुलना में कम थी जबकि आज की तारीख़ में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 75 डॉलर प्रति बैरल है फिर भी ज़्यादा है.
जिस क़ीमत पर डीलरों को सरकर तेल देती है वो काफ़ी कम होती है, लेकिन उत्पाद शुल्क और राज्य सरकारों के वैट के बाद क़ीमतें दोगुनी हो जाती हैं.
केंद्र और राज्य सरकारों के राजस्व का बड़ा हिस्सा पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले टैक्स से आता है. मध्य प्रदेश पेट्रोल पर सबसे ज़्यादा 40 फ़ीसदी वैट लगाता है. सभी राज्य सरकारों ने पेट्रोल पर 20 फ़ीसदी से ज़्यादा वैट लगा रखा है.
गुजरात और ओडिशा को छोड़ बाक़ी राज्यों ने डीजल पर कम वैट रखा है. हालांकि गोवा में डीजल पर ही ज़्यादा वैट है. राज्यों के बजट में पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले वैट का योगदान क़रीब 10 फ़ीसदी है.
राज्य सरकारें तेल को जीएसटी के दायरे में लाने को तैयार नहीं हैं. जीएसटी की अधिकतम दर 28 फ़ीसदी है और इसमें राज्यों का शेयर 14 फ़ीसदी होगा. ज़ाहिर है वैट से मिलने वाले राजस्व में भारी कमी आएगी. इसीलिए डीजल और पेट्रोल को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है.
दूसरी तरफ़ केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क को देखें तो कुल टैक्स राजस्व में इसका हिस्सा 23 फ़ीसदी है और उत्पाद शुल्क से हासिल होने वाले राजस्व में डीजल-पेट्रोल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क का हिस्सा 85 फ़ीसदी है.
इसके साथ ही केंद्र के कुल कर राजस्व में इसका हिस्सा 19 फ़ीसदी है. सितंबर 2014 से पांच बार तेल पर संघीय टैक्स में बढ़ोतरी हुई और यह बढ़ोतरी 17.33 रुपए प्रति लीटर तक गई. पिछले साल अक्तूबर में इसमें दो रुपए प्रति लीटर की कटौती की गई थी.
भारत में पेट्रोलियम से जुड़े उत्पाद में डीजल की खपत 40 फ़ीसदी है. सार्वजनिक परिवहनों में डीजल सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता है. डीजल के बारे में भारत में कहा जाता है कि इसका महंगाई दर पर 'ट्रिकल डाउन इफेक्ट' पड़ता है. मतलब डीजल महंगा हुआ तो ज़रूरत के कई सामान महंगे हो जाएंगे.
परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ''अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमत कम होने का फ़ायदा सरकारें ले रही हैं और ज़्यादा होने की क़ीमत जनता चुका रही है. सरकार कूटनीति के स्तर पर भी नाकाम दिख रही है. आप अमरीका को मनाने में क्यों सफल नहीं हो रहे कि वो ईरान से तेल आयात करने से ना रोके? ईरान आपको रुपए पर भी तेल देता है. आप सऊदी और इराक़ को रुपए से तेल देने पर क्यों नहीं तैयार नहीं कर पा रहे हैं?''
कई विशेषज्ञों का मानना है कि तेल बेचने वाले देशों के संगठन ओपेक की मनमानी के कारण भी कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ रही है.
बीजेपी नेता और तेल मामलों पर पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले नरेंद्र तनेजा का कहना है कि तेल बेचने वालों की तरह तेल ख़रीदने वालों का भी संगठन होना चाहिए ताकि मनमानी क़ीमतों को काबू में किया जा सके.
क्या मोदी सरकार ने लुभावने विज्ञापन दिए थे इसलिए ज़्यादा सवाल उठ रहे हैं? इस पर तनेजा कहते हैं कि उनकी सरकार में कोई अनिर्णय की स्थिति नहीं है, इसलिए वादों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है.

Saturday, September 1, 2018

人工降雨:中国减霾的秘密武器

在尝试通过戒烟及禁止露天烧烤等方式防控大气污染后,中国官员又打起了以人工降雨消减雾霾的主意。
据《新京报》报道,中国气象局近期下发的《贯彻落实〈大气污染防治行动计划〉实施方案》称,中国气象部门在2015年将具备重污染天气条件下采取气象干预措施,组织开展人工影响天气(主要为人工降雨)消减雾霾,改善空气质量的能力。
该文件的出台契机是中国政府今年以来高调的治理大气污染运动。今年七月,环保部门宣布在两年内投入1.7万亿治理大气污染。
由于中国今年雾霾日数创下50余年来的最高记录,因而有关部门想通过人工降雨消减空气污染的动机并不难理解。今年早些时候,兰州、成都和武汉等地的政府就已将人工降雨列为重度污染天气的应对措施。
中国早有利用人工降雨唤回晴天的先例,尽管目的不全是为了消减雾霾。 年八月,北京为了保障奥运会开幕式的顺利,使用了人工降雨。其后2010年世博会期间,上海曾考虑通过在天气恶劣时人工降雨以改善空气质量。
据气象部门的数据显示,在2002年至2012年的十年间,中国在全国范围内开展的人工影响天气作业共计增加降水4897亿吨。
然而,专家们对于人工降雨消减雾霾的效果还抱着谨慎乐观的态度。
中国气象局人工影响天气研究专家郭学良在接受《人民日报》采访时表示,人工降雨其对清除雾霾有较好的效果,但前提是必须有降水形成的条件。
“人工增雨关键在于增雨的成本和效果,”大气污染研究专家、北京大学城市与环境学院博导刘俊峰告诉《中外对话》,“效果若理想还可以解决北京的缺水问题。”
环保部政策研究中心主任夏光则表示,人工降雨对于治理大气污染只是权宜之计。他在接受新华社采访时说:“在雾霾严重的时候,来一场人工降雨就像是对重症病人进行急诊,可以暂时缓解空气污染。然而,要想真正根除雾霾污染,还需要多方面的努力。”
此外,人工降雨消减雾霾的可行性也同样遭到怀疑。 
中国气象学会会员、全国人工影响天气咨询评估委员会副主任委员洪延超对《中外对话》表示:“按目前人工影响天气,尤其是人工增雨的技术水平,要通过人工增雨的方法减少雾霾、改善空气质量,几乎是不可能的。”
“首先人工影响天气需要一定的条件,例如人工增雨需要有合适的云层,其中包括含水量、冰晶浓度等微物理条件,在雾霾天气一般不会有这样的条件。”洪延超补充道。
“损失损害”是华沙气候峰会核心问题之一,这是气候变化谈判中一个较新的议题,它再次凸显了发达国家与发展中国家之间的分歧。
为了达成“华沙损失损害国际机制”,本次大会比原定结束时间延后了近24小时。这一机制的目的就是帮助那些“在气候变化反效应下尤为脆弱的发展中国家”。
在去年的多哈气候大会上,各国政府原则上同意建立一个国际机制来处理损失和损害问题。在华沙大会上,由于最不发达国家( )和小岛屿国家联盟( )的提议,这一机制再次被置于显要地位。该提议得到了七十七国集团加中国阵营的全力支持,多名观察家认为各方表现出了非同寻常的团结。
孟加拉国科学家萨利姆·胡格长期为最不发达国家提供咨询,尤其是在损失和损害问题上。他说: “该提议显示了损失和损害问题如今变得十分重要,而且与适应和减缓问题截然不同,应该拿出来单独讨论。这是一个原则。我们甚至不是在谈论补偿……目前我们在华沙探讨的是一个制度性安排,这并不是结束,而是开始。这是关于损失和损害讨论的开始。”
对美国来说这成了一个令人担心的问题。《卫报》和《印度教徒报》披露的一份官方简报文件表明,美国的担心主要是谈判的焦点可能会集中对气候变化引起的各种损害的补偿上。
“我们一直都知道美国是站在我们对立面的,这对我们来说不是什么新闻。”国际行动援助的哈吉特·辛格告诉中外对话。他还表示,美国在听,并且参与了关于损失和损害的讨论,但是当谈判似乎陷入僵局时,七十七国集团的首席谈判代表离场,对发达国家拒绝达成协议表示抗议。
大会的一个主要绊脚石就是“损失损害补偿机制”的定位和架构。七十七国集团成员认为损失和损害不能被当作适应气候变化的一部分,要求将其作为一个独立的实体和第三个支柱。美国对此表示反对。最后在闭幕式因为美国和斐济(代表七十七国集团)代表间的“小会”而被迫暂停后,会议终于做出决议:这个新机制将在2010年坎昆会议的一个适应框架下建立起来,但在2016年将进行检讨。
国际行动援助批评说,这个结果“太无力了,根本无法应对气候变化业已造成的巨大影响”。
还有人认为或许是(对华沙大会的)期望太高了。国际气候行动网络负责人沃尔·哈麦丹对中外对话说,这个决议“对双方来说是最好的妥协”,“基本上是唯一可能的出路”。
关于这个解决气候变化费用征收问题的新机制,有许多问题需要解答。其中一些是围绕责任以及气候变化造成的损失和损害应包含哪些内容等,除此之外还有其它问题。
菲律宾 s”的国家协调员伏尔泰·阿尔弗雷茨说:“我们希望这个安排中能够包含资金、技术转移和能力建设。”
但一些评论家们则认为必须先把这个机制建立起来,然后再讨论其执行的问题。
此外,这一新机制对其它两个支柱——适应气候变化和减缓气候变化(减排)的影响还有待观察。
胡格说:“我们不认为这会牺牲适应和减缓。实际上,它反而会强化对减缓的需求。我们所做的减缓越少,遭受的损失和损害就越多;我们做的减缓越多,损失和损害就越少。”
“我们希望减缓和适应都增加,这样我们的损失和损害才能最小化,但不可能让它们为零。”
对那些在气候危机中首当其冲的国家来说,华沙国际机制为其应对危机提供了至关重要的帮助。尽管如此,这个关于承认必须解决损失损害问题的协议对国际社会来说可能还算不上一个成就。
“我们不得不讨论损失损害,这件事本身就是负面的,因为我们这么做的唯一原因就是我们没做到减缓,也没做到适应。”胡格如是说。